Love Hostel Review : ‘लव हॉस्टल’ उस भवन का नाम है जिसमें अपने परिवार के सदस्यों से दूर भागकर शादी करने वाले जोड़े अदालत के आदेश पर पुलिस की सुरक्षा में आश्रय लेते हैं।
इस इमारत का नाम इसकी रखवाली करने वाले एक पुलिसकर्मी के नाम पर रखा गया है। OTT ZEE5 ने एक देसी कहानी पर आधारित फिल्म पेश करके एक बार फिर हिम्मत की है।
बॉबी देओल ने इस फिल्म के बारे में तब बताया था जब उन्होंने शाहरुख खान की कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट की वेब सीरीज ‘क्लास ऑफ 83’ की रिलीज से पहले उनसे आखिरी बार बात की थी।
रेड चिलीज एंटरटेनमेंट ने मनीष मुंद्रा की कंपनी दृश्यम फिल्म्स के साथ मिलकर इस फिल्म का निर्माण किया है। दोनों कंपनियां इससे पहले संजय मिश्रा के साथ फिल्म ‘कामयाब’ बना चुकी हैं।
शाहरुख खान शायद ही अपनी कंपनी की वेब सीरीज या ओरिजिनल फिल्में बनाने में दखल देते, क्योंकि अगर ऐसा होता तो वह कम से कम ‘लव हॉस्टल’ जैसी फिल्म तो नहीं बनाते।
यह सच है कि देश में अभी भी अपराध होते हैं, कानून के रखवाले आज भी अपराधियों के हौसले पस्त करते हैं, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश में कहीं कोई एक क्षेत्र में दर्जनों हत्याएं करता है और पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती है।
फिल्म ‘लव हॉस्टल’ सिनेमैटोग्राफर के साथ-साथ पटकथा लेखन और निर्देशन कौशल रखने वाले शंकर रमन का सपना है। और, यह फिल्म किसी सपने की तरह ही है।
यह हर बार दिखता है और फिर एक झटके से सपना टूट जाता है। हाथ कुछ नहीं आता। घड़ी देखने से ही पता चलता है कि दर्शक समय को करीब 90 मिनट तक देख रहे हैं। जिसे हासिल करना शायद टीम भूल गई हो।
कहानी ऑनर किलिंग से ज्यादा हॉरर किलिंग की है। प्रेमी जोड़े घरवालों की मर्जी के खिलाफ शादी करने के लिए कोर्ट पहुंचते हैं। परिवार के सदस्यों को कोर्ट से तलब किया गया है।
फिर अगली तारीख तक, उन्हें पुलिस की सुरक्षा में एक ऐसी इमारत में खर्च करना पड़ता है जहाँ रहना किसी सजा से कम नहीं है।
कहानी का असली किरदार डागर है, जिसने ऐसे प्यार करने वाले जोड़ों को खोजने और मारने का जिम्मा उठाया है। माथा जल गया है। दाढ़ी बढ़ी है, नाक पर, चश्मा आगे लटका हुआ है। रान पर कटार बांधे फिरता है और साइलेंसर से सज्जित पिस्तौल से खोपड़ी पर सटीक प्रहार करता है।
डायरेक्टर शंकर रमन की फिल्म ‘लव हॉस्टल’ अपने ट्रेलर में पहले ही बता चुकी है कि इसे देखने के लिए लीवर की जरूरत पड़ेगी. बहुत खून-खराबा होगा।
लेकिन, दर्शकों के दिमाग पर इसके असर को कम करने के लिए या यूं कहें कि पर्दे के खूनखराबे से ध्यान हटाने के लिए फिल्म में दो जगहों पर बच्चे कातिल से कहते हैं कि उसके शरीर पर खून लगा है।
लेकीन हत्यारे ऐसे हैं कि उन्हें न तो पुलिस की परवाह है, न अपनों की और न ही उनके निशाने पर आए लोगों के रिश्तेदारों की, बिलकुल निरस और सपाट कहानी है।
दर्शकों को हैरान करने के लिए फ्लैशबैक का छिड़काव किया जाता है। ऐसी कहानियों के लिए केवल भावनाओं की आवश्यकता नहीं होती है। और ऐसा इसलिए है क्योंकि इस कहानी में कोई हीरो नहीं है।
दो जराचिकित्सक एक दूसरे को मारने के लिए कृतसंकल्प हैं। बीच में समलैंगिकता का भी रंग है। अगर यह पहलू इन दिनों फिल्म या वेब सीरीज में नहीं है, तो शायद ओटीटी लोग ऐसी फिल्में और वेब सीरीज नहीं खरीदते हैं।
फिल्म देखने का एकमात्र कारण बॉबी देओल का फिल्म में केंद्रीय किरदार निभाना है। जूनियर देओल को इस उम्र में सब कुछ करने का मौका मिल रहा है।
ताकि उनके अंदर का कलाकार बाहर देख सके, लेकिन पिंजरे से झांकने वाले इस अभिनेता को अभी भी खुला आसमान नहीं मिल रहा है।
कहा जाता है कि इस कहानी को पढ़ने के बाद बॉबी ने पहली बार ऐसा नहीं किया, लेकिन बॉबी ने अपने दूसरे प्रयास में यह फिल्म की।
बॉबी या यूं कहें देओल परिवार के फैंस इस फिल्म को देखेंगे और देखेंगे कि कैसे एक महान कलाकार एक बार फिर एक कमजोर कहानी में फंस जाता है।
डागर के किरदार में बॉबी देओल का काम बेहतरीन है। उनका गेटअप उनकी क्रूरता को बढ़ाने में मदद करता है लेकिन उनके डायलॉग उतने दमदार और प्रभावी नहीं हैं जितने की उनसे उम्मीद थी।
विक्रांत मैसी और सान्या मल्होत्रा लव बर्ड्स हैं। एक बार जब वे घर से उड़ जाते हैं, तो वे घोंसला बनाने के लिए तिनके भी नहीं इकट्ठा कर सकते। बस हवा में लहराते रहो।
दोनों ने अपने हिस्से की मेहनत भी पूरी की, लेकिन एक-एक कहानी के हिस्से सफल होने पर भी उन्हें सफलता कहां से मिलती है. फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश में की गई है। फिल्म का फैब्रिक हरियाणा का है।
हर कोई सिर्फ हरियाणवी बोलता है। यह उद्धरण सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन इसके निर्माताओं ने फिल्म के सहायक कलाकारों पर कंजूसी की है।
जिन लोगों ने ‘बालिका वधू’ में सुरेखा सीकरी का अभिनय देखा है, वे इस फिल्म को देखते हुए उन्हें बहुत मिस करेंगे। क्योंकि, यहां जो दादी है, वही हवा दिखाती है, लेकिन इस अभिनय में कोई जान नहीं है।
जैसा कि विवेक शाह के कैमरे से देखा जा सकता है कि फिल्म रात में चलती है, दिन में धीमी हो जाती है। साथ ही एक खाली फैक्ट्री में ग्राफिक्स से बने मोर को भी दिखाता है। इस कहानी में कुत्ते एक शक्तिशाली पात्र हैं। फिल्म के क्लाइमेक्स के ट्विस्ट भी उन्हीं का हिस्सा हैं।
फिल्म की अवधि शायद शुरू से 90 मिनट ही तय की गई होगी तभी इसके वीडियो एडीटर्स नितिन बैद और शान मोहम्मद ने तमाम घटनाएं ऐसी भी फिल्म में बनाए रखी हैं।
जिनको हटा देने से फिल्म की कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। क्लिंटन सेरेजो का बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के एहसासों के हिसाब से ठीक नहीं है। उन्हें कुछ रागिनियां सुननी चाहिए थीं।
हरियाणा के लोकवाद्यों और लोकगीतों का असर भी इसमें लाना चाहिए था। हरियाणा का और भी बहुत कुछ फिल्म में लाया जा सकता था।
देसी कहानियों को कहने वाले भी अगर देसी सोच के ही हों तो बात दूसरी होती है, नहीं तो मामला फिर नकली सा ही दिख्खन लागे है।