एक डर यह भी है कि सारे चुनाव एक साथ कराने से प्रांतीय पार्टियां कहीं खत्म न हो जाएं।
संविधान दिवस पर यह मांग फिर उठी है कि भारत में सारे चुनाव एक साथ करवाए जाएं। यानी लोकसभा, विधानसभाओं, नगर निगमों और पंचायतों के चुनाव अलग-अलग वक्त पर न हों।
ये सभी चुनाव एक साथ किसी एक ही निश्चित समय पर करवाए जाएं। यह मांग बीजेपी के 2014 के घोषणापत्र में भी थी लेकिन इसे अभी तक अमल में नहीं लाया गया है।
हालांकि इस मुद्दे पर विचार करने के लिए बीजेपी सरकार ने सभी दलों की एक बैठक 2014 में बुलाई थी लेकिन लगभग सभी महत्वपूर्ण दलों ने इस बैठक में भाग नहीं लिया। कम्युनिस्ट पार्टी ने भाग तो लिया लेकिन उसने इस प्रस्ताव का विरोध किया।
चुनाव ही ब्रह्म
फिर सभी लोकसभाएं भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। अब तक की 17 में से 7 लोकसभाएं ऐसी रही हैं जो पांच साल के पहले ही भंग कर दी गईं। स्थानीय इकाइयों के चुनाव और भी जल्दी तथा बार-बार होते ही हैं।
ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति में चुनाव ही ब्रह्म है। वही सदा और सर्वत्र बना रहता है। अब चुनाव पांच साल में एक बार नहीं होते। एक साल में भी एक बार नहीं होते। ये हर महीने दो महीने में कहीं न कहीं होते रहते हैं। इसके नतीजे क्या होते हैं?
पहला, नेता और अफसर अपना समय और शक्ति पूरी तरह शासन-प्रशासन में लगाने के बजाय मतदाताओं को पटाने में खपाते रहते हैं। एक चुनाव खत्म होता नहीं कि दूसरा शुरू हो जाता है।
अब तो प्रधानमंत्री और कई केंद्रीय मंत्री तक स्थानीय चुनाव-प्रचार में भी भिड़े रहते हैं। दूसरा, चार-पांच तरह के चुनाव जब अलग-अलग तारीखों में होते हैं तो उनके आयोजन में अंधाधुंध खर्च होता है।
2019 के अकेले संसदीय चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। 3400 करोड़ रुपये की शराब, नशीली दवाइयां और अवैध उपहार पकड़े गए। जो नगदी काला धन बहाया गया, उसका तो कोई हिसाब ही नहीं है।
यही चुनाव जब बार-बार हों, प्रांतों और शहरों-गांवों में भी हों तो कुल खर्च कितना बड़ा हो जाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
तीसरा, बार-बार होनेवाले इन चुनावों के लिए नेताओं को अरबों-खरबों रुपया जमा करना होता है। उम्मीदवारों पर तो खर्च की सीमा लागू होती है लेकिन उनके राजनीतिक दलों को पूरी छूट है। यही भारत में भ्रष्टाचार की जड़ है।
चौथा, इन चुनावों में वह चाहे लोकसभा के हों या नगर-निगम के, सभी नेता अपने वोटरों के सामने जातिवाद, सांप्रदायिकता और लालच की चूसनियां लटकाने से बाज नहीं आते।
देश में यदि जल्दी-जल्दी चुनावों का सिलसिला चलता रहा तो हमारी जनता का निर्मल और निष्पक्ष विवेक सुरक्षित रखना भी कठिन हो जाएगा, जो कि किसी भी लोकतंत्र की सफलता का पहला सूत्र है।
इसीलिए सारे चुनाव एक साथ करवाए जाएं,
इस मांग का समर्थन 1999 से ही चला आ रहा है। हमारे विधि आयोग, चुनाव आयोग और संसद की स्थायी समिति ने भी इसका समर्थन किया है। संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मांग को फिर उठाया है।
लेकिन जो पार्टियां और लोग इसके विरोधी हैं, उनके तर्क भी कमजोर नहीं हैं। उनका पहला तर्क तो यही है कि मोदी इस पर जोर इसीलिए दे रहे हैं कि इस समय वे ही देश में एकमात्र बुलंद नेता हैं। उनकी टक्कर में कोई नहीं है।
यदि सभी विधानपालिकाओं के चुनाव एक साथ हों तो बीजेपी सारी पार्टियों का सफाया कर देगी और वह पूरे देश में छा जाएगी। लेकिन इसका उल्टा भी हो सकता है। मोदी से भी कहीं ज्यादा बुलंद नेता इंदिरा गांधी थीं या नहीं?
उन्हें भी क्या केंद्र के साथ-साथ सभी प्रांतों में कभी एक साथ विजय मिली? 1977 में आपातकाल के बाद केंद्र और उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का भट्टा ही बैठ गया था।
दूसरा तर्क यह है कि यदि सभी चुनाव एक साथ हुए तो राष्ट्रीय मुद्दे ही चुनाव के असली विषय होंगे, प्रांतीय और स्थानीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। लेकिन ऐसा ही हो, यह जरूरी नहीं है।
ऐसा तभी होता है, जब युद्ध, अकाल, महामारी या किसी बड़े नेता की हत्या जैसी घटनाएं हो जाएं। आम मतदाता हमेशा अपने हित पर पहले ध्यान देता है।
तीसरा तर्क यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 90 करोड़ मतदाता एक साथ मतदान कैसे करेंगे? आधुनिक तकनीक के कारण एक साथ मतदान ज्यादा आसान होगा।
एक ही बार में वे अपनी सभी विधायी संस्थाओं के लिए मत डाल देंगे।
उन्हें बार-बार लाइन में नहीं लगना होगा। चौथा तर्क यह कि इस नई व्यवस्था को लाने के लिए संविधान में क्या कई संशोधन नहीं करने पड़ेंगे? जरूर करने पड़ेंगे लेकिन सभी दल इस मुद्दे पर सर्वसम्मत हो जाएं तो यह बहुत आसान होगा।
पांचवा तर्क सबसे सबल और व्यावहारिक है। यदि लोकसभा और विधानसभाएं पांच साल की अपनी अवधि के पहले ही भंग हो गईं तो क्या शेष अवधि के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों का ही शासन चलेगा? नहीं।
इसका समाधान जर्मन संविधान में है। पांच साल की अवधि के पहले कोई विधायी संस्था भंग नहीं होगी। मध्यावधि में यदि कोई सरकार अल्पमत में आ जाती है तो वह तब तक इस्तीफा नहीं देगी, जब तक कोई दूसरी वैकल्पिक सरकार न बन जाए। यह संशोधन भी हमें करना पड़ेगा।
प्रांतीय पार्टियों की चिंता
एक डर यह भी है कि सारे चुनाव एक साथ कराने से प्रांतीय पार्टियां कहीं खत्म न हो जाएं। इससे भारत की विविधता को खतरा हो सकता है। इसका जवाब यही है कि भारत की विविधता प्रांतीय पार्टियों की देन नहीं है।
यह भी कि देश में छोटी-मोटी सैकड़ों पार्टियों के बजाय सिर्फ दो बड़ी पार्टियां रहें तो हमारा लोकतंत्र अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान वगैरह की तरह ज्यादा मजबूत और स्वस्थ होगा। हां, जातिवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद और परिवारवाद को इससे जरूर खतरा हो सकता है।